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A Hindu woman performing a religious ceremony around the tulsi plant by D.V. Dhurandhar, Bombay, C।1890 (courtesy V&A Museum, London).
हमारे यहां अनकानेक धार्मिक अनुष्ठानों का प्रचलन बना हुआ है। जहां कुछ अनुष्ठान पूजा-पाठ से सम्बन्धित हैं वहीं कुछ अनुष्ठान हमारे रीतिरिवाजों से सम्बन्धित हैं। आज शिक्षित और आधुनिक बने अनेक लोग इन धार्मिक अनुष्ठानों को अंधविश्वास और ढकोसला मानते हैं। पर ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो अधिकांश धार्मिक अनुष्ठानों को वैज्ञानिक आधार वाले कार्य मानते हैं।
नियमित रूप
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मंदिर में मन्त्रोच्चार किया जाता है। प्रत्येक मन्त्र में एक निर्धारित स्वर विधान होता है इससे मन्त्रोच्चार के समय सभी स्वरों की प्रतिध्वनि परस्पर टकराती है जिससे उसकी ऊर्जस्वशक्ति में वृद्धि हो जाती है। इस प्रकार रेडियम किरणें उत्पन्न होती हैं जिससे हमारे शरीर एवं मन के नकारात्मक द्रव्यों को नष्ट कर देती है। मस्तिष्क एक धनात्मक विद्युत आवेग का केन्द्र बनकर अनूठी शक्ति बन जाता है। शब्द शक्ति के संचय से मन की कल्पनाशक्ति जाग्रत हो जाती है। इससे मन केन्द्रित होता है और उसकी सक्रियता बढ़ जाती है।
मंदिरों में पूजा-अर्चना के समय शंख व घन्टे या अन्य लोकवाद्य बजाए जाते हैं। इनसे उत्पन्न ध्वनि से आसपास के वातावरण में एक विशेष प्रकार की उष्णता का संचार होता है। विभिन्न लोकवाद्यों द्वारा उत्पन्न ध्वनि एक प्रकार की विद्युत तरंगों के स्पंदन से अलौकिक विद्युत प्रवाह का संचरण होता है। इससे सम्पूर्ण वातावरण के साथ-साथ हमारा मन भी शुद्ध हो जाता है। वायु शुद्ध हो जाती है। ध्वनि से उत्पन्न उष्णता हमारे रक्त स्नायुओं को भी सकारात्मक रूप से प्रभावित करती है। इससे शरीरस्थ चक्रों में गति उत्पन्न हो जाती है, फलस्वरूप रक्त शुद्धि की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है और ग्रंथियों के रस प्रवाह में भी तेजी आ जाती है। इस प्रकार मन के विकारों से मुक्ति पाकर हम मानसिक रूप से स्वयं को मजबूत बना पाते हैं। हमारी क्रियाशीलता और उत्साह में वृद्धि हो जाती है और हमारे आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त होता है।
मंदिर में पूजा समाप्त होने पर आरती की जाती है। आरती में प्रयुक्त दीपक की ज्योति से आसपास का वातावरण ऊष्मामय हो जाता है। इससे अनेकानेक रोगों को जन्म देने वाले विषाणुओं का नाश होता है। आरती में प्रायः कपूर, धूप आदि का उपयोग किया जाता है जिसकी गंध विषाणुओं के लिए घातक होती है। ऊष्मा के कारण आसपास की वायु गर्म होती है और खाली स्थान बन जाता है जिसकी पूर्ति हेतु वहां ताजी हवा प्रविष्ट होती है।
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पूजा के बाद प्रसाद वितरण का अपना विशेष महत्व होता है। प्रसाद में पंचामृत या चरणमृत को शामिल अवश्य किया जाता है जो दूध, दही, तुलसी, गंगाजल और मधु जैसे 5 पदार्थों को मिलाकर बनाया जाता है। चरणामृत एक प्रकार से औषधि बन जाता है। इसका सेवन करने से शरीर में अनूठी शक्ति का संचार होता है। इससे शारीरिक दुर्बलता, क्षय, निमोनिया, टाइफायड यानी मियादी बुखार आदि में लाभ मिलता है। रक्त शुद्धि में चरणमृत सहायक होता है और यह रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि भी करता है। तन ओर मन दोनों शुद्ध होते हैं और उन पर दूषित वातावरण का प्रभाव नहीं पड़ता।
मंदिर जाने वाले अधिकांश भक्त शिवलिंग पर जल व दूध चढ़ाते हैं। वे शिवलिंग का स्पर्श करते हैं और अपनी आंखों, मुह व चेहरे का स्पर्श भी कराते हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि निरन्तर जल व दूध चढ़ाने से शिवलिंग पर एक भिन्न प्रकार की विद्युत शक्ति उत्पन्न हो जाती है। यह विद्युत शक्ति स्पर्श के माध्यम से व्यक्ति के शरीर में प्रवेश कर जाती है। शरीर का कायाकल्प करने वाली इस शक्ति से मन में आणविक शक्ति का संचार होता है।
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हमारे यहां बच्चे के जन्म के बाद उसका नामकरण संस्कार सम्पन्न होता है और उसकी आयु 1, 2, 3 या 5 साल होने पर मुंडन संस्कार होता है। सामान्यतः यह एक धार्मिक कार्य ही माना जाता है और उसी रूप में सम्पन्न किया जाता है। चिकित्सकों और वैज्ञानिकों के अनुसार यदि जन्म के बाद बच्चे के बालों का एक बार मुंडन कर दिया जाए तो उसके बालों की अच्छी वृद्धि होती है और उसके पूरे सिर पर अच्छे बाल आते हैं। बाल जल्दी झड़ते भी नहीं हैं।
यज्ञोपवीत संस्कार को आज के समय में अनेक लोग हास्यास्पद मानते हैं। वे इसे पंडितों की आजीविका का एक साधन मात्र मानते हैं। दरअसल वे यज्ञोपवीत के धागों के वैज्ञानिक महत्व से अनजान हैं। यज्ञोपवीत के तीन धागे वायु-पित्त-कफ, इड़ा-पिंगला और सुषुम्ना नाड़ी पर अपना प्रभाव डालते हैं यानी उदर में चुम्बकीय धाराओं का प्रवाह तीव्र हो जाता है। इससे पाचन शक्ति सुदृढ़ हो जाती है। मल-मूत्र त्याग के समय यज्ञोपवीत को कान पर लपेटा जाता है, इससे लकवा मारने का खतरा नहीं रहता। पाचन ठीक रहता है। इसका प्रभाव पूरे शरीर पर पड़ता है। एक्यूप्रेशर पद्धति में भी माना जाता है कि कानों को बार-बार खींचने से कब्ज की शिकायत दूर होती है।
हिन्दू विवाह पद्धति की आलोचना करने वालों की भी कमी नहीं है। वे इसे भी ढोंग मानते हैं। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि शास्त्रानुसार किये गये विवाह का नवदम्पति के अन्तर्मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। परस्पर मनमुटाव होने पर भी वे अलग होने का प्रयास नहीं करते। उनके बीच एक भावात्मक एकता बनी रहती है।
अंतिम संस्कार को लेकर भी कुछ तोग कटाक्ष करते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार जब कोई प्राणी मरता है तो उसके शरीर से असंख्य जीवाणु चारों ओर फैल जाते हैं। ये जीवाणु अनेक साध्य-असाध्य रोगों के कारण बन सकते हैं। अतः इस स्थिति से बचने के लिए मृत शरीर का दाह संस्कार किया जाता है। जो लोग दाह संस्कार में शामिल होते हैं उनके परिजन उस दिन उपवास रखते हैं। इसके पीछे का कारण यह है कि कहीं भोजन के माध्यम से जीवाणु शरीर में प्रवेश न कर जाए। दाह संस्कार के बाद हाथ-पैर धोने, स्नान करने, मिर्च खाने जैसी क्रियाओं से जीवाणु का खतरा टल जाता है। मिर्च को जीवाणुओं अच्छा प्रतिरोधक माना जाता है।
हमारे पूर्वजों ने विभिन्न क्रियाकलापों को आवश्यकतानुसार धार्मिक अनुष्ठानों का रूप दे दिया जो निःसन्देह हमारे ही हित में है। हमारे ये संस्कार वैज्ञानिक कसौटी पर भी खरे उतरते रहे हैं। प्राचीन काल से ही प्रचलित हमारी विभिन्न परम्पराएं, संस्कार, धार्मिक अनुष्ठान आदि हमारे ऋषि-मुनियों-मनीषियों की सोच, परख और दूरदृष्टि के परिणाम हैं जिन्हें उन्होंने व्यापक जनहित में स्थापित किया।
टी.सी. चन्दर/www.prabhasakshi.com
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