मैया मेरी

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एक बात मैया मेरी याद रखना...मन्जू गोपालन/श्री सनातन धर्म महिला समिति, कीर्तन स्थान: बाग मुज़फ़्फ़र खां, आगरा यहां क्लिक करके यू ट्यूब पर देखिए मैया मेरी

Saturday, June 5, 2010

जातपांत

जात गिनाना ही मनुवाद है


जन-गणना में जात को घुसाना सबसे बड़ा 'मनुवाद' है| यह हमारे संविधान का संपूर्ण नकार है| हमारा संविधान जातिविहीन समाज का उद्रघोष करता है लेकिन जो जात का जहर घोलने पर अमादा हैं, उनका आदर्श भारत का संविधान नहीं, 'मनुस्मृति' है| उनका जातिवाद उन्हें भस्मासुर बना देगा| वंचितों के मलाईदार नेता अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी चलाएंगे| उनकी जातियों के ही दबे-पिसे लोग उनकी छाती पर चढ़ बैठेंगे|


जन-गणना में जाति गिनाने के पक्ष में अजीबो-गरीब तर्क दिए जा रहे हैं| पहला तर्क यह है कि जाति हिंदुस्तान की सच्चाई है| इसे आप स्वीकार क्यों नहीं करते ? यह तर्क बहुत खोखला है, क्योंकि इस देश में जाति ही नहीं, अन्य कई सच्चाइयाँ हैं| क्या हम उन सब सच्चाइयों को स्वीकार कर लें ? जैसे भारत में हिंदुओं की संख्या सबसे ज्यादा है तो हम इसे हिंदू राष्ट्र घोषित क्यों कर दें ? भारत में भ्रष्टाचार पोर-पोर में बसा हुआ है तो हम भ्रष्टाचार को राष्ट्रीय शिष्टाचार की मान्यता क्यों दे दें ? राजनीति का उद्देश्य वास्तविकताओं के सामने घुटने टेकना नहीं है बल्कि उनको बदलना है| डॉ. आंबेडकर और डॉ. लोहिया ने जो जातिविहीन समाज का सपना देखा था, उसे हमने कहां तक आगे बढ़ाया है ?

1931 के बाद अंग्रेज ने और आजाद भारत की सरकारों ने भी जात की गिनती नहीं की, इसके बावजूद भारत में जात जिंदा है, इसमें शक नहीं लेकिन वह राजनीति में जितनी जिंदा है, उतनी हमारे सामाजिक और शैक्षणिक जीवन में नहीं है| अस्पृश्यता काफी घटी है, सहभोज तो आम बात है और अंतरजातीय विवाह पर अब पहले-जैसा तूफान नहीं उठता है| ज्यों-ज्यों शिक्षा और संपन्नता फैलती जा रही है, जात का असर घटता जा रहा है लेकिन जातिवादी नेताओं के लिए यही सबसे बड़ा खतरा है| वे अपने वोट बैंक को फेल नहीं होने देना चाहते| इसीलिए जन-गणना में वे जात को जुड़वाने पर आमादा हैं| उनका अपने चरित्र्-बल, बुद्घिबल और सेवा-बल पर से विश्वास उठ गया है| वे केवल अपने जातीय संख्या-बल पर निर्भर होते चले जा रहे हैं| वे सवर्ण नेताओं की भद्दी कॉर्बन कॉपी बन गए हैं| वे देश के वंचितों के प्रति उतने ही निर्मम हैं जितने कि सवर्ण नेतागण !

जन-गणना में जात गिनाने से उन्हें क्या मिलेगा ? आरक्षण तो बढ़ना नहीं है, क्योंकि उच्चतम न्यायालय ने 50 प्रतिशत की लक्ष्मण रेखा खींच रखी है| इस समय कुल आरक्षण 49.5 प्रतिशत है ! यदि आरक्षित जातियों की जनसंख्या दस-बीस करोड़ ज्यादा भी निकली तो उसका फायदा क्या है ? कुछ नहीं| कम निकलीं तो उलझनें ही उलझनें हैं| यह ठीक है कि अपने जातीय अनुपात के आधार पर नेता लोग राज-काज में अपना हिस्सा मांगेंगे| यदि दलित, आदिवासी और पिछड़े मांगेंगे तो क्या सवर्ण चुप बैठेंगे ? हर वर्ण में सैकड़ों-हजारों जातियॉं हैं, उनमें भी उप-जातियाँ हैं और उप-जातियों में गोत्र् हैं| भारत का सारा राजनीतिक और प्रशासनिक ढांचा हजारों टुकड़ों में बंट जाएगा| मजहब ने देश के दो टुकड़े किए थे, जाति इसे हजार टुकड़ों में बांट देगी| सवर्णों और अवर्णों के बीच तो तलवारें खिंचेंगी ही, जातियों के अंदर अंदरूनी महाभारत भी छिड़ जाएगा|

जन-गणना में जात को घुसाना सबसे बड़ा 'मनुवाद' है| यह हमारे संविधान का संपूर्ण नकार है| हमारा संविधान जातिविहीन समाज का उद्रघोष करता है लेकिन जो जात का जहर घोलने पर अमादा हैं, उनका आदर्श भारत का संविधान नहीं, 'मनुस्मृति' है| उनका जातिवाद उन्हें भस्मासुर बना देगा| वंचितों के मलाईदार नेता अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी चलाएंगे| उनकी जातियों के ही दबे-पिसे लोग उनकी छाती पर चढ़ बैठेंगे|

देश के 70-80 करोड़ वंचितों को पहली बार पता चल रहा है कि पांच-सात हजार सरकारी नौकरियों पर उनकी जाति के सिर्फ मलाईदार लोग हाथ साफ करते हैं| शेष सभी लोग अज्ञान, अभाव और अपमान का जीवन जीते हैं| उनके लिए तो सवर्ण नेताओं ने कोई ठोस काम किया और ही अ-वर्ण नेताओं ने| नौकरियों का आरक्षण पाखंड सिद्घ हुआ| इस पाखंड को बनाए रखने के लिए और करोड़ों वंचितों की आंखों में धूल झोंकने के लिए अब जनगणना में जाति का शोशा छोड़ा गया है|

जाति की गिनती को यह कहकर जायज़ ठहराया जा रहा है कि आपको आंकड़ों से क्या परहेज़ है ? बिना सही आंकड़ों के आप वैज्ञानिक विश्लेषण कैसे करेंगे? ऐसा तर्क करनेवालों से कोई पूछे कि जाति गिनाने में कौनसी वैज्ञानिकता है? सामाजिक और आर्थिक न्याय देने के लिए क्या जानना जरूरी है? जात या जरूरत? जिसे भी जरूरत है, उसे बिना किसी भेदभाव के विशेष अवसर दिया जाना चाहिए लेकिन जात के आधार पर विशेष अवसर देना तो ऐसा है, जैसे कोई अंधा रेवड़ी बांट रहा हो या कोई नौसिखिया वैद्य हर रोगी को दस्त की दवा टिका देता हो| किसका क्या रोग है, यह जाने बिना इस देश में 60 साल से थोक में दवा बंट रही है| इसीलिए मज़र् बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की गई|

कोई यह बताए कि कालेलकर और मंडल आयोगों ने कैसे तय किया कि ये 2300 जातियाँ पिछड़ी हैं? उन्होंने भी उन जातियों की सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक स्थिति का पता लगाने की कोशिश की| कैसे की? आंकड़े इकट्रठे किए| आधे-अधूरे किए लेकिन किए| अब भी करें और ज्यादा करें| गहरे में उतरें और उन आकड़ों के आधार पर समस्त वंचितों को सचमुच विशेष अवसर दें| 50 नहीं, 60 प्रतिशत दें, जैसा कि डॉ. लोहिया कहा करते थे लेकिन यहां जात का क्या काम है? उसे बीच में क्यों घसीट रहे है? संविधान में कहीं भी 'जाति' शब्द नहीं है, पिछड़ा वर्ग है| क्या जाति और वर्ग एक ही है? उस समय जात का सहारा इसलिए लिया गया कि यह रास्ता आसान था| दो साल में कालेलकर और सवा दो साल में मंडल क्रमश: 40 करोड़ और 70 करोड़ लोगों का कूट-परीक्षण कैसे करते? छह-सात हजार जातियों का वैज्ञानिक विश्लेषण असंभव था| इसीलिए उन्होंने जाति का अवैज्ञानिक ही सही, सरल और थोक पैमाना अपना लिया| अब लाखों सरकारी कर्मचारी जन-गणना के लिए उपलब्ध हैं और यह कंप्यूटर का ज़माना है| हम देश के वंचितों की सही और सीधी पहचान क्यों नहीं करते? उस पहचान के आधार पर एक क्रांतिकारी समतामूलक समाज की स्थापना क्यों नहीं करते?

हमारे पिछड़े नेता कहते हैं कि हर नागरिक के पहचान पत्र् में उसकी जात लिखो| यह उनके मनुवाद का निकृष्टतम रूप होगा| जात के नाम पर हम अपने भाइयों को कहां तक अपमानित करेंगे ? भारत सरकार ने तो मतदाता-सूचियों से जातिगत नाम हटा रखे हैं| लेकिन जातिवादी नेताओं के टेके से चल रही यह सरकार ज़रा घबरा गई है| प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह बधाई के पात्र् हैं कि उन्होंने हिम्मत दिखाई और सारा मामला दुबारा खोल दिया| इस मुद्दे पर जमकर राष्ट्रीय बहस चलनी चाहिए| भास्कर के दिल्ली संस्करण (11 मई) में 'मेरी जाति, सिर्फ हिंदुस्तानी' लेख छपने के बाद 'सबल भारत' नामक संगठन ने आंदोलन छेड़ दिया है| उसे देश के कोने-कोने से समर्थन मिल रहा है| इस आंदोलन के आयोजकों में अनेक दलित और वंचित वर्गों के शीर्ष लोग भी शामिल हैं| राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, सिखों की शिरोमणि सभा, बाल ठाकरे तथा कई अन्य सामाजिक और राजनीतिक हस्तियों ने इसका समर्थन किया है| अमिताभ बच्चन ने भी अपने ब्लॉग पर 'मेरी जाति भारतीय' लिख दिया है| जन-गणना में जाति को घुसाने का विरोध उतनी ही तन्मयता से होना चाहिए, जैसे कि 1857 में अंग्रेज का हुआ था| यदि हमारे नेतागण इस राष्ट्रविरोधी मांग के आगे घुटने टेक दें तो भारत के नगारिक जाति के कॉलम को खाली छोड़ दें या लिखवाएँ 'मेरी जाति हिंदुस्तानी'!

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

dr.vaidik@gmail.com


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