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Friday, February 4, 2011

धर्मान्तरित दलित

आरएल फ़्रांसिस
धर्मान्तरित दलितों का आरक्षण
दलित ईसाइयों को आरक्षण दिये जाने का मुद्दा हमारे यहां प्रायः उठता रहता है। इस मुद्दे को लेकर गैर सरकारी संगठन सेन्टर फ़ॉर पब्लिक इन्टरेस्ट लिट्टीगेशन और डी. डेविड द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दायर याचिकाओं के कारण भी सबके सामने आए। इन्होंने संविधान में वर्णित अनुसूचित जाति आदेश 1950 के तीसरे पैराग्राफ की वैधानिकता को चुनौती दी। इसमें लिखा हुआ है कि हिन्दू, सिख, और बौद्ध के अलावा अन्य धर्म का पालन करने वाला अनुसूचित जाति का सदस्य आरक्षण से वंचित हो जाएगा।

दलित ईसाइयों को नौकरियों में आरक्षण देना राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में आता है। न्यायालय की एक अन्य व्यवस्था के अनुसार राष्ट्रपति के आदेश के अन्तर्गत अनुसूचित जाति और जनजाति की श्रेणियों में प्रविष्टियों के इस अन्तिम रूप में छेड़छाड़ नहीं की जा सकती। याचिकाकर्ताओं ने तर्क रखा कि न्यायालय द्वारा दी गयी व्यवस्थाएं छुटपुट सामग्री और तथ्यों पर आधारित है। परन्तु अब दलित ईसाइयों को आरक्षण का लाभ देने के पक्ष में व्यापक तथ्य और सामग्री जुटा ली गयी है। अतः अब इस पर विचार करने की आवश्यकता है।
यह भी उल्लेखनीय है कि पिछड़े और उपेक्षित धर्मांतरित ईसाइयों के एक बड़े वर्ग का मिशनवाद और पादरियों के विरुद्ध अभियान भी काफी समय से चल रहा है। इससे जुड़ी अनेक बातें मुझे कुछ समय पहले पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेण्ट के अध्यक्ष आर. एल. (राम लुभाया) फ्रांसिस ने एक मुलाकात में बतायी थीं। फ्रांसिस वर्षों से इन मुद्दों को लेकर सक्रिय हैं।

चर्च संगठनों के भीतर ही समान अधिकारों के लिए उनकी लड़ाई जारी है। दलित ईसाइयों के लिए आरक्षण की वकालत की जा रही है जबकि इसकी जरूरत ही नहीं है। धर्मान्तरित ईसाइयों के प्रति ईमानदारी निभायी जाए तो उन पर धर्मान्तरण के बाद भी ‘दलित’ का ठप्पा लगाये रखने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
दरअसल आदिवासी या वनवासी समुदाय में घुसपैठ बनाने में मिशनरी जितने सफल हुए हैं उतने हिन्दू दलितों में नहीं। फिर भी बड़ी संख्या में उनका विभिन्न प्रकार के तरीके अपनाकर लम्बे समय से धर्मान्तरण कराया जा चुका है और प्रयास जारी हैं। हिन्दू संगठन इसका निरन्तर विरोध भी करते रहे हैं। यही नहीं धर्मान्तरण पर रोक को लेकर कठोर कानून बनाये जाने की मांग भी लगातार उठती रहती है। 
चर्च और कॉंग्रेस दोनों ही हिन्दू संगठनों और भारतीय जनसंघ तथा आज की भारतीय जनता पार्टी का भय दिखाकर लोगों को अपने पक्ष में कर वोट बटोरते रहे हैं। जबकि आश्चर्य की बात यह है कि राजग के शासन के दौरान इस अल्प संख्यक समुदाय को किसी प्रकार की हानि नहीं हुई। मिशनरी लोगों को विश्वास में लिए बिना उनके निजी कानूनों में परिवर्तन करने में जुटे रहे हैं। यह बात उल्लेखनीय है कि लगभग 95 प्रतिशत लोगों को अपने अधिकारों और कानूनों के बारे में जानकारी ही नहीं है। मिशनरियों को छुटपुट घटनाओं को भी काफी बढ़ाचढ़ाकर अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर उठाने में गहरी रुचि रहती है। धन, अंधविश्वास, लालच, भय, सेवा, शिक्षा आदि का उपयोग करते हुए लम्बे समय से वे इस देश के नागरिकों को अपने समाज और अपने लोगों से काटकर कौन से पुण्य का काम कर रहे हैं। जाहिर है उनके ऐसे कार्य के विरुद्ध कभी-कभी हलकी या कठोर प्रतिक्रिया भी हो जाती है तब उन्हें अपने ऊपर हुए अत्याचार का हौआ खड़ा करने का अभियान चलाना पड़ता है।
भारतीय चर्च को इस बात पर गर्व होना चाहिए कि उन्हें इस देश में बहुसंख्यक समुदाय से भी ज्यादा धार्मिक स्वतंत्रता मिली हुई है। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि चर्च की विस्तारवादी मानसिकता के चलते देश के कई भागों में टकराव की स्थिति पैदा होती रहती है। उड़ीसा के कंधमाल में घटी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं लोग भूले नहीं होंगे। इससे भारत को दुनिया भर में काफी बदनामी भी झेलनी पड़ी। आज भी कुछ लोग और संगठन अपने स्वार्थो तथा मनमानी के चलते शांति के मार्ग में रोड़ा बने हुए हैं और वे देश को बदनाम करने का कोई अवसर कभी नहीं नही छोड़ते।
टी.सी. चन्दर




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